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आवत-जात पनहियाँ टूटीं / नईम

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आवत-जात पनहियाँ टूटी,
पाँवों आए छाले!

वृथा गए दिन बरस महीने,
मिली न मनसबदारी,
रिझा न पाए ठाकुर को हम,
कुल की कानि बिसारी।

संस्कृति की सूनी मंडी में
घुस आए हैं लाले।

पुरस्कार ले गए मझोले,
छुटभैये बन बैठे,
ऐरा-गेरा हुए मुसाहिब,
फिरते ऐंठे-ऐंठे।

सिंहासन के आसपास हैं
ये जीजा वो साले।

सदगति अगर सीकरी होती,
कूकर भी तर जाते।
धूनी तपते राम हमारे,
साखी सबद न गाते।

उनकी गंग-जमुन से बेहतर
अपने नद्दी-नाले।