भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आवत-जात पनहियाँ टूटीं / नईम

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:39, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आवत-जात पनहियाँ टूटी,
पाँवों आए छाले!

वृथा गए दिन बरस महीने,
मिली न मनसबदारी,
रिझा न पाए ठाकुर को हम,
कुल की कानि बिसारी।

संस्कृति की सूनी मंडी में
घुस आए हैं लाले।

पुरस्कार ले गए मझोले,
छुटभैये बन बैठे,
ऐरा-गेरा हुए मुसाहिब,
फिरते ऐंठे-ऐंठे।

सिंहासन के आसपास हैं
ये जीजा वो साले।

सदगति अगर सीकरी होती,
कूकर भी तर जाते।
धूनी तपते राम हमारे,
साखी सबद न गाते।

उनकी गंग-जमुन से बेहतर
अपने नद्दी-नाले।