भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भौंक-भौंक कर चुप हो जाते / नईम

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:07, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भौंक-भौंक कर चुप हो जाते,
दुमें हिलाते,
तब तो कोई बात नहीं थी;

भला नहीं लगता, लेकिन अब
बकरी-सा उनका मिमियाना।

अब भी उनकी वही गली सँकरे कूचे हैं,
फर्क़ यही आया सज्जन नकटे बूचे हैं,
साख़ गिरी, पहचान खो गई

मुँह ही नहीं, जु़बान खो गई।
आज़ादी के बाद कलाओं का
ये बिल्कुल नया घराना।

अलिफ भौंकने की तो बात समझ में आती,
ओछी पूँजी से ये बनने चले बिसाती;
हश्र यही होना था अब प्राणों के लाले,

बहनोई या हों फिर साले;
नहीं रही अब वैसी ठुमरी-
बदल गया है बहुत तराना।

अगर स्वस्थ होते तो तय था अनहद गाते,
अब गाने की जगह भलेमानुस चिल्लाते।
हीन ग्रंथियों के शिकार-

ये कलाकार अब,
चालढाल में अपनी बेढब-
सँकरे में करते फिरते हैं
साँझ-सबेरे ये समधियाना।