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पृथिवी-दोहन / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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अन्नहीन, धरती थी हो गई,
स्वयं ही छिपा लिया था मेदे में अपने
प्राण-तुल्य अन्नादि बीजों को उसने।
वक्ष पर उसके थे काल-दण्ड से गड़े
मगर-पिशाच-से कराल रूप धारण कर;
बरछे की नोक जैसे पर्वत भयावने।
सावधान मुद्रा में सन्तरी से,
देते थे दिखाई मानो दे रहे हों पहरे।
आँखों में कुटिल हास्य, दाढ़ों में लिए काट,
फरसे की धार-से पसारे फटे जबड़े,
खोले कपाट चाट जाने त्रिभुवन को।
अर्द्धनग्न रेगिस्तान क्षितिज तक फैला था,
धुआँधार, जलते, दहकते अंगार का।
कभी तो पूरब से आते थे झंझावात
सात-सात ताल तक ऊँचे चढ़-उतर कर;
योजन तक लहर-लहर वृक्षों को पछाड़ते।
कौंध लपकते थे, बादल घुमड़ते थे
विजयोत्तर, शंख फँूक, सगार-निर्घोष कर।

भूतल विवर्ण असमतल था,
फैले थे दूर तक जंगल डरावने
प्रेतों की भंगी में रन्दे-से दन्तवाले।
ठँूठे कठीले तरुवृन्ध थे बड़े-बड़े।
काटने से जिनके कठोर चर्म-वर्म को
अन्तर भी प्रस्तर के समान ही था दीखता।

सूचीमुखी राड़ियाँ थी बर्बरा-
सरपत औ; शामियों की झाड़ियों में झूमतीं।
मुड़के, धतूरे के बूटे कहीं फैले थे
मूँछों की नोकों को ऐंठे नुकीली-सी।
मोथे, कुश मानों थे प्रहरी यमदूत के
अन्न को चुराए हुई वसुधा के कोष के।
पृथिवी के उदर में टूँडे़ं घुसेड़ कर
पाते थे वनडाभ जीवन की थालियाँ
कहते थे मानो उस अकर्मण्य प्राणियों से,
दैव के भरोसे जो बैठे मन मारे थे-
‘‘रहना है गौरव के साथ यदि जीवन में
विघ्नों की छाती में टँूड़ें घुसेड़ दो;
इतना न छोटा है जीवन का टीला यह,
चाहे जो कोई भी कूदे जब चढ़ जाए।’’

कूबरी धरा थी मानो मन्धरा,
पृष्ठ पर ढोती-सी भार व्यर्थ भूधर का।
बन्ध्या उस भीमतमा धनु-सी
मोटी हो खाकर जो नित्य हरा चारा,
किन्तु, नहीं दूध दे एक खुद बूँद भी।
भाग वह लेती थी देवी वन यज्ञ में,
किन्तु, नहीं बदले में अन्न कभी देती थी।

लाल-लाल लपटें अकाल की,
धू-धू कर जल उठीं तक्षक के डंक-सी।
फोड़ कर मर्म-भित्ति ठोकर अपघात की,
आकर लगी अनायास जीर्ण भुवन-स्तम्भ में।
क्षुधित, विषण्ण, म्रियमाण हुए प्राणी सब,
धूम्र-नील-अन्ध-दाह फैला अपमृत्यु का।
विटप के कोटर की जलती-सी आग से
विपिन का निखिल वितान जल जाता है;
क्षुधा-पिशाचिनी की ज्वाला से त्यों ही
झुलसा भुवन, छाया शोक-तम गहरा।

आया तब मानव आर्त्त प्राणियों का नाद सुन
करुणाधन, दयाधाम बन पृथु प्रतापवान;
सूर्य-चन्द्र-सा महान, हवा से भी वेगवान,
कीर्त्तिमान, विजयशील रथ पर चढ़ा हुआ।
मोटे विशाल तपे सोने से भूषित किए,
विवर के टेढ़े क्रुद्ध सर्प-से ले धनुष-बाण;
पैरों की धमक से उसके भूकम्प हुआ,
तितर-वितर मेघ हुए केशांे के झंझे से।
नेत्रों की ज्वाला से सूर्यादि फीके पड़े,
दीखना दिशाओं का बन्द हुआ तेज से।
नदियों का पानी लगा खौलने-
औंटा ज्यों गया हो गर्म चूल्हे की आँच से।
मर्यादित सीमा के बाहर हो सप्त सिन्धु
योजन तक फैल गए धक्के से श्वास के।
विन्ध्या की चोटी-सी ऊँची-बड़ी लहरों में
शंख, सीप, मगर आदि बाहर निकल पड़े;
उल्कापात हुए और तारागण टूट गिरे
विटप-वृृन्ध उखड़कर धूल लगे फाँकने।

लक्ष्य कर अपने को बाण को चढ़ाते देख।
पृथु-नाम महाबाहु मानव को वेग से;
भाग चली पृथिवी भय-कम्पिता हो दौड़ती
हिरनी ज्यों भागती है व्याध के डर से।
अरहुल के फूल-सी आँखें लाल-लाल कर
पृथु-नाम रूपी मानव पीछे लगा रहा,
जहाँ-तहाँ पृथिवी थी भागती,
वहाँ उसे कड़वा-सी कौंधती सुनाई पड़ी-
महाभाग मानव की मेघ-कण्ठ-गर्जना!
लौटी वह पीछे की ओर, तब कहने लगी
लोकपाल पृथु से प्रार्थिनी-सी बन कर-
‘‘मैं तो हूँ नौका के समान एक छोटी-सी,
जिस पर पग टेक कर विराट ब्रह्म खड़ा है;
कहो, फिर आयुधों से कैसे तोड़-फोड़ मुझे
निराधार शून्य में त्रिशंकु बन रहोगे?’’

मेघ-रन्ध्र-वाणी में उत्तर दिया मानव ने
‘मृतक-तुल्य हुए लाखों मूक भूख-ज्वाला से
धान ज्यों ऐंठ कर पराल बन जाता है;
जेठ की अग्नि-वर्ण धँधआती धूप में।
जीवन ही जिनका करना निरन्तर ही
संघर्ष बचपन से लेकर बुढ़ापे तक,
एक बार महामृत्यु आकर ही जिनके
हृदय की पीड़ा को शान्त कर देती है।
वर्षों से ऐसे ही रहते जो आ रहे
चुन-चुन कर साग-पात खाकर अधपेट ही;
सुख में विरक्त वन, दुख में सन्तोष कर।
और, तुमने कर लिया लीन है अपने में
स्रष्टा के उत्पन्न किए अन्नादि बीजों को।
अतः आज तुम्हें मैं नष्ट कर डालूँगा
गर्वीली और मदोन्मत्ता तू हो गई।’’

बोली तब पृथिवी दया-याचना करती हुई
सार्वभौम सत्यवान वीरमूर्ति मानव से-
‘पुरुष-सिंह, तेरा यह कथन असत्य है
कि मैं ही हूँ कारण इस विश्वव्यापी दुःख का;
देखोंगे अगर तुम अनुभव-वैचित्र्य से
सृष्टि के स्वरूप की रचना को ग़ौर कर;
देखोगे एक ओर मेरे इस वक्ष पर
गिरिमेखल खड़े बन ऐरावत इन्द्र के;
पूर्व चक्रवाल ऊपर उठा भवाग्रतक
पश्चिम चक्रवाल धँसा नीचे कुम्भीपाक तक;
कहीं तो मिट्टी का चिप्पड़ पठार बन
उभरा है निर्विशंक आँखे पसार कर;
और कहीं गहरी विषमता की खाइयाँ
खाकर मरोड़ें रसातल को जाती हैं;
कोसों दूर नीचे धरातल में घाव कर।
सौ हज़ार तहोंवाले श्रावण के मेघ-दल
वैजयन्त रथ पर चढ़ आते जो कभी हैं;
सारा-का-सारा जल शुण्डों से सोखकर

रख लेता सिन्धु है अपनी उर-दरी में।
टिकता न एक बूँद मेरी इस छाती पर
और मैं रीती-की-रीती रह जाती हूँ।
एक रस कर दो तुम धनुष के रन्दे से
रगड़कर, छील कर मेरे वंक पृष्ठ को
जिससे दीर्घ काल तक इन्द्र का बरसाया जल
सर्वत्र एक-सा बिना बँधे टिका रहे;
पूर्व में स्रष्टा ने जिन धान्य बीजों को
पैदा किया था सर्वभूतहित-इच्छा से
देखा जब मैंने पूर्वजों की उस पूँजी को
खाए जा रहे हैं केवल स्वाथ-ग्रस्त मूढ़ जन
देकर दुहाई निज एकाधिकार की।
मैंने तब उदरस्थ कर लिया अपने में
अन्न, फल-फूल, रत्न-राशि, ओषधियों को।
अब तुम दो शीघ्र ही ला मेरे योग्य दोहन-पात्र,
वत्स और द्वन्द्वातीत दोहक की व्यवस्था कर।
दूँगी तुम्हें मैं सब सारासार ज्यों-का-त्यों
बछड़े के स्नेह से पिन्हा कर दुग्ध-रूप में;
सींच कर हृदय के रुधिर की खाद से
दोहन करेंगे मुझे कठिन कर परिश्रम सब,
एक-दूसरे से पस्पर योग-दान ले
काट कर विषमता के पाहन कुठार से।
अंकित रहंेगे चिह्न मेरे अन्तर-पट पर
कितने खुदैयों की कुदाली के युग-युग तक;
जाने न क़ब्रें में बनेंगी कितने श्रमिकों की
मेरे इस पद-लुंठित धूल-भरे अंचल में;
और उन क़ब्रों कितने न आँसू होंगे
कितने उपवास जाने कितने दुख छिपे हुए।
फिर क्या अधिकार है किसी को यह कहने का-
‘‘वस्तु यह तेरी नहीं, मेरी ही बपौती है
न्याय है न उपयोगी व्यक्तिगत अधिकार;
सर्व-सुलभ-सलिल-रूप प्राकृत पदार्थों पर।
व्यक्तिगत स्वत्व की नीति का प्रश्रय ले
निश्चय नहीं रह सकता जीवित समाज है।
सत्य की ओर उसे जाना ही पड़ेगा कभी
नाश उसका अनिवार्य अन्यथा समझ लो;
हो रहा यह सारा सभ्य जीवन असत्य है
बन रहा स्वभाव आत्म-वंचना मनुष्य का।’’

सुनकर प्रिय वाणी यह पृथु-नाम मानव ने
बछड़ा बनाकर मनु स्वायम्भुव को युक्ति से;
दोहन किया हाथों में ही सारतत्व धान्यों को
वश में की गई वसुन्धरा से तृप्त हो।
महाभाग पितरों ने अर्यमा को वत्स बना
कव्य-रूप दूध दुहे मिट्टी के पात्र में।
ऋषियों ने पृथिवी से ज्ञान-रूप दूध दुहे
वाणी, मन और श्रोत्र-रूप दिव्य पात्र में।
सिद्धों ने अणिमादि अष्ट सिद्धियों को दुहा,
कपिल को बछड़ा बना कर घनपात्र में।
देवों ने वीर्य, ओज, अमृतमय दूध दुहा,
वत्स बना इन्द्र को प्रदीप्त स्वर्ण-पात्र में।

दानव, पिशाचों ने भूतनाथ शंकर को
बछड़ा बनाकर रुधिरासव-रूप दूध दुहे,
श्रद्धा से कल्याणकारक कपाल में।
पशुओं ने रुद्रवाहन बैलों को वत्स बना,
भूसा-रूप दुग्ध दुहे व्यापक वन-पात्र में।

मांस-भक्षी जीवों ने सिंह-रूप बछड़े से,
कच्चा मांस-दुग्ध दुहे रिक्त कण्ठ-पात्र में।
विष-रूप दुग्ध दुहे ज़हरीले जन्तुओं ने,
तक्षक को बछड़ा बना कर मुख-पात्र में।
 
पक्षियों ने चर और अचर पदार्थों का,
दोहन किया, वत्स बना शक्तिशाली गरुड़ को।
वीतराग अश्वत्थ को वत्स बना वृक्षों ने,
रस-रूप दुग्ध दुहे पत्तों के पात्र में।
पर्वतों ने नगपति को वत्स मान दोहन किया,

शिखर-रूप पात्रों में धातुओं को स्नेह से।
इसी तरह पृथु आदि सभी अननभोजियों ने
पृथिवी से पृथक-पृथक पात्रों में दूध दुहे;
पृथक-पृथक पदार्थों के रूप में।
और कर डाला फिर समतल वसुन्धरा को,
श्रेणि-वर्ग-भावना के पर्वत को फोड़ कर।

जहाँ-तहाँ यथायोग्य निर्मित हुए दुर्ग, पर,
छावनियाँ, ग्राम और बड़े-बड़े नगर-डगर।
पù खिले सामूहिक चेतना के उग-बढ़ कर,
जनगण के जीवन-सरोवर में सुन्दरतर।
सबको सुख पाने का जन्मसिद्ध स्वत्व मिला,
धरती की पैदावार सबकी सम्पत्ति हुई।
प्रथम जागरण हुआ गगन की निद्रा का,
प्रथम वसन्त फूटा जर्जर जग-जीवन में।
स्वर्ण-किरण-रथ पर प्रभात का जुलूस निकला,
दौड़ कर छूटी गन्ध फूलों से छन करं
नन्दन-विपिन हुआ जंगल बबूल का,
महक उठे नमी हुई मिट्टी के आभरण;
नवयुग की किरणों के रंगों की लहर से।
खेतों में फ़सल लगी लहर-लहर झूमने,
सर्पिणी ज्यों झूमती सँपेरे की बीन पर।
शाखा-लताओं में शाखा और लता-कमल,
तिमिर के शिला-तल को फोड़ कर निकले;
फूलदार वृक्ष झुके फलों के दीए जले,
फलदार वृक्षों में फूलों के भार से;
पाकर आलिंगन लताओं का धरती तक।
अर्बुद परार्द्ध कोस गहरा महासुद्र,
मीठे जलवाला हुआ खारापन छोड़कर।
घाटियों में अंगूरी बेलें लहराने लगीं,
गंगा अवतीर्ण हुई निरुदक कान्तार में।

(रचना-काल: सितम्बर, 1946। विशाल‘भारत’, नवम्बर, 1946 में प्रकाशित।)