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डंका / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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जन-मन में खँडहर में
मौन, क्षुब्ध अन्तर में,
बधिर कर्ण-कोटर में,
स्वर का मारू डंका!
बजो, बजो!

वज्र-घोष से घरघर,
भुवन-कोश को जर्जर,
रनन-घनन कर अम्बर,
दिग्घोषित स्वर-डंका!
बजो, बजो!

धागड़ांग ढिम-ढन-ढन,
दीर्ण करो दिग्बन्धन,
घहर-गहर हर लो मन,
मनुज-शक्ति का डंका!
बजो, बजो!

रोम-रोम में गति-स्वन,
रुद्ध कण्ठ में गर्जन,
अणु-अणु में भर कम्पन,
रसघनवर्षी डंका!
बजो, बजो!

धमक-गमक से मन्दर,
शब्द-श्रवण से अजगर,
नाचे दम्भी सागर,
ब्रह्म-रन्ध्र में डंका!
बजो, बजो!

दिव्य सृष्टि का अंचल,
तन्द्रिल, तमस, अमंगल,
ऊर्मिल कर छवि-उज्ज्वल,
इन्द्र-वज्रवत डंका!
बजो, बजो!

भय में, भ्रम के घन में,
क्रन्दन-कम्पित मन में,
उत्पीड़न के क्षण में,
मन्वन्तर तक डंका!
बजो, बजो!

(रचना-काल: नवंबर, 1945। ‘विशाल भारत’, दिसम्बर, 1945 में प्रकाशित।)