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ज्योति-अमृत / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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मर्दित जो कभी नहीं होता, जो नहीं व्यथित,
उस ज्योति-अमृत के प्राणतत्व से मैं छन्दित।
रहता विषाद, संशय, चिन्ता से जो आवृत,
उस तिमिर-मृत्यु की छाया से मैं संयोजित।

मैंने देखा निज मनःपटल पर ही विम्बित,
है ज्योति-अमृत का दिव्य कुम्भ अंगारदीप्त।
देखा मैंने निज अन्तर्मन के ही भीतर,
आन्दोलित तिमिर-मृत्यु का गहन महासागर।

है मृत्यु-अमृत का द्वन्द्व चिरन्तन दुर्निवार,
पर होता रहता विफल मृत्यु का तम-प्रहार।
मैं च्यवन-धर्म से नहीं त्रस्त, सन्तप्त, क्लान्त,
मैं सोमसुधापायी; नियगारा का प्रपात।

हो जाता है जब छन्द आयु का अर्थहीन,
हो जाती है जब सोमपान की वृत्ति क्षीण।
तब मर्त्य तिमिर की कलुष कालिमा से परिवृत,
होता अमर्त्य की ज्योति-सुधा से मैं व´्चित।

होकर उत्प्राणित प्राण शक्तियों से विराट,
खुल सकता मूर्त्त कराल काल का तम-कपाट।

(15 अक्तूबर, 1973)