Last modified on 18 मई 2018, at 15:27

पण्डित सुमित्रानन्दन पन्त के प्रति / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:27, 18 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामइकबाल सिंह 'राकेश' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कविवरेण्य हे आत्मा की भाषा के चिन्तक!
कालजयी तुम काव्यभारती के आराधक!
कलासर्गकर, सत्य-कल्पना के संयोजक!
समन्वयक सन्देश तुम्हारा मंगलकारक!

निहित तुम्हारे सुर में व्यंग्य अर्थ आह्लादक!
जैसे नीड़भूत अरणी में स्वर्णिम पावक!
वर्त्तमान भावी अतीत के दिक्स्वस्तिक पर,
स्थूल-सूक्ष्म को देखा तुमने चक्षु खोल कर!

थोथी भौतिकता के मृगजल-मरु में दुस्तर,
भटकी हुई मनुजता का तुमने रह-रह कर-
ध्यानाकर्षित किया ज्योतिवाहक युग के बन,
अन्तर्जग के परम सत्य की ओर चिरन्तन!

स्वर्णांशुकभूषित शब्दों को किया समर्पित,
मातृभूमि के चरणों पर तुमने महिमान्वित!
भू-जीवन के हृदय शिराओं का निस्पन्दन,
सुना हटा कर तुमने क्षणभंगुर अवगुंठन!
नक्षत्रों को गूँथा लहरों में लपेट कर,
किया दूर को निकट, धूल को स्वर्ण दिव्यतर!

सृजनशीलता दी संस्कृति को तुमने नूतन,
काव्यकारिता से निर्मल कर अन्तरदर्पण!
बना जागरण-मन्त्र तुम्हारे अन्तर का स्वर-
आत्मतीर्थ है बाह्यतीर्थ से कहीं महत्तर!

क्या न धन्य वह वाणी भी हे तिमिरविभेदन?
प्राप्त तुम्हारे स्वर का था जिसको आलम्बन!
जो तुममें अनुरक्त लीन रहने के कारण,
भूल गई थी कालिदास का करना चिन्तन!

(15 मार्च, 1979)