अरुणोदय वेला में झील / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
शून्य में मुसकान की पलकें खुलीं,
स्वर्ण किरणों से धरा खिल कर हँसी।
लालिमा की लपट अम्बर में उठी,
तिमिर में अंगार की चादर तनी।
सन्दली हेमन्त की रंगीन नीली झील में-
भैरवी, आसावरी, हिण्डोल की गत बज उठी!
मीनरूपी करधनीवाली तुरंजी झील में
छन्द-वर्णों की छटा खुल-खिल पड़ी।
स्फटिकधवला लहरदोला पर झुलाती-
मेघ-शिशुओं को सुला कर नीलमणि-सी झील निर्मल।
श्वेत चादर की किनारी पर सजाती-
गगनतल के किरणतारों को मनोरम।
जलपटल पर चाकलेटी सीखपर,
गुलिन्दे, सुरख़ाब, सिलही, नीलसर-
काढ़ते निज पंखमाला की लकीरों से कसीदे
आसमानी, कासनी, धानी, गुलाबी रंग के।
कौन-सी उनकी सुरीली मुरकियों में रागिनी,
गा रही बन कर प्रकृति मधुदानिनी उन्मादिनी?
मीड़मय झंकार से पागल समीरण हो रहा,
चिर नवीना प्रकृति का आनन्द-ताण्डव हो रहा,
प्राणधारा से धरा का वक्ष कम्पित हो रहा,
सन्तरण कर मम विकल मन बन अमन,
छवि-तरंगों के शिखर पर नयन-नन्दन।