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मुझे दो सुनने अन्तर्गान / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
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मुझे दो सुनने अन्तर्गान,
मधुरतम सरगम के सन्धान।
दीप की उस लौ में सन्दीप्त,
जलन जिसका जीवन-संगीत,
अन्ध तम से जो परे अतीत,
निरन्तर करती ज्योति-प्रदान।
चमकती चपला में छविमान,
ध्वनित करती जो अभिनव तान,
एक सुर का गोपन व्याख्यान,
गगन की वीणा में सुनसानं
तरंगित सरिता में गतिमान,
दीर्ण कर जो गिरि-शृंग-वितान,
हुलस जाती होने लयमान,
सिन्धु में महाआयतनवान।
सुगन्धित सुमनों में सानन्द,
एक छवि का रच मनहर छन्द,
लुटाते जो कुंकुम मकरन्द,
भुवन में सुधामयी मुसकान।