Last modified on 18 मई 2018, at 16:04

फूल और मानव / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:04, 18 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामइकबाल सिंह 'राकेश' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सरल फूल के जीवन में जो है मधुमय सौन्दर्य विलक्षण,
जो निर्मल प्रकाश जो गौरव है जो सौरभ का आकर्षण।
है वह नहीं मलिन, पंकिल, विजड़ित भूमानव के जीवन में,
अति मर्यादित, अति विस्तृत इस विश्व-भुवन के अन्तर्मन में!

उत्फुल्लित होकर प्रसून ने अन्तरतम के कोष खोल कर,
दिए सामने रख मानव के मधु, कुंकुम, परिमल, पुंकेसर।
जिसने चाहा, उसने उसकी प्रिय छवि को निरखा जी-भर कर,
जिसने चाहा, तोड़ लिया उसको सुरम्य उपवन से चुन कर।

जिसने चाहा, बना लिया निज कण्ठ-हार उसको गुम्फित कर,
जिसने चाहा, उसके मृदुल स्पर्श से किया सरस निज अन्तर,
पर वह तुच्छ कुसुम मानव के लिए रहा सर्वथा अपरिचित;
अति अद्भुत कल्पनापूर्ण, विस्मयकारक, अज्ञेय अचिन्तित।

शिलाखण्ड है नया उदधिवसना पृथिवी के तल से उर्वर,
मिट्टी है उस शिलाखण्ड से नई बिछी वह जिसके ऊपर।
उस मिट्टी से नई फूल की जड़ है, जिसमें है वह विकसित,
जड़ से नया तना है, नया तने से पंुखपत्र है र´्जित।

पुंखपत्र से कली नई है गुंठित गर्भकोष के भीतर,
फूल कली से भी है नूतन पत्रवृन्त के ऊपर निर्भर।
और फूल से नया विश्वमानव है निखिल सृष्टि का भूषण;
पर क्यों उसके हृदयपटल पर है विकार का छù आवरण?

है क्यों अन्धकार से आवृत मानव की आत्मा अकलंकित?
क्यों विषाद से है पूरित मानव की चेतन वृत्ति अकंुठित?
है क्यों क्षुद्र अहं, तृष्णा से नीतिमान मानव अनुप्रेरित?
है निस्तेज बन गया क्यों उसकी आत्मा का स्वर्ण प्रदीपित?

है क्यों वैसा नहीं मनुज जेसा है सुन्दर फूल सुगन्धित?
होता फूल-समान नहीं क्यों मानव का अन्तर्मन विकसित?
हो सुरभित प्रसून-सा मानव का जीवन सुगन्ध से पूरित।
तेज, दीप्ति, वर्चस, रंगों की स्वर्ण रोचनाओं से मण्डित।

(‘नया समाज’, जनवरी, 1957)