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प्रभात के अरुण आभास में / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
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आ रही अरुणपिंगला उषा स्वर्णिम रथ पर,
रंगों का चित्र खींचती नील गगन पथ पर।
कितना उत्तुंग उसका केतन,
अम्बर में आन्दोलित प्रतिक्षण।
कितना विराट उसका स्यन्दन,
जिसमें तुरंग अंगारवरण।
जिनके पदचापों की ध्वनि से तारे डर कर,
छिप रहे शून्य के गहने विवर मंे इधर-उधर।
था भुवनकोश का मन पटल,
तम के परिरम्भण में निश्चल।
तन्द्रा में चित्रलिखित भूतल,
दिक्स्वस्तिक का भी परिमण्डल।
सुन कर किसके अद्भुत रथ के पहियों के स्वर,
चौंके जलचर, चौंके थलचर, चौंके नभचर?
दुर्गम भू-मग ऋजु रम्य सुगम,
जीवन-क्षण का नूतन अनुक्रम।
मण्डन से जिसके देवोपम,
निर्मल नभसर उत्फुल्ल परम।
आने के पहले ही उसके चमके भूधर,
चमके अर्णव, चमके निर्झर, चमके सरि-सर।