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रात बची एक पहर / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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तुम मेरे परम अयन,
मेरे सन्ध्यावन्दन, तुम मेरे आलम्बन।

बीत गया यों ही दिन, रात बची एक पहर,
टूट गया मेरा वल लहर-भँवर में पड़ कर।
दृष्टि करो तुम मुझ पर, क्षण भर मेरे दुख पर,
तुम पर ही आशा है, तुममें ही मेरा मन।

छोड़ी दुर्गम मग की चिन्ता मैंने तुम पर,
फिसल रहे मेरे पग बार-बार रह-रह कर।
तीर लगे मुझमें हैं, मैं हूँ गिरने ही पर,
ढरक रहा क्षण-क्षण में आँखों से मौन रुदन।

विह्वलता कसक उठी स्वर-मरोर से भीतर,
कम्पन से दीर्ण हुए अन्तर के अतल विवर-
उगल रहे लाल-लाल अंगारे धू-धू कर,
चलती है गरम साँस ऐसी हो रही जलन।