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अग्नि-सोम का द्वन्द्व-चिरन्तन / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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अग्नि-सोम का द्वन्द्व चिरन्तन,
ज्योति-अमृत का लाता प्लावन।

सम्भव कभी न जिसके कारण,
द्यावा-पृथिवी का दिग्बन्धन,
वन में मर्मर-घन में गर्जन,
कड़कनाद नर्त्तन।

ज्योतिर्वसन उषा क्षितिज पर,
चिर अक्षर में, पर से भी पर,
प्रथम प्रात का दृष्टिपटल पर,
करती चित्रांकन।

लावा का नद तिमिरधूम बन,
धधकता ज्वालानल भीषण,
करता जिसके ताण्डव का स्वन,
विस्फुलिंग वर्षण।

भुवन-भुवन में स्वर भर मादन,
लहराता मन योगवान बन,
बिना पिए होता मदवर्धन,
मुझमें उद्दीपन।