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नि-सर्ग / गिरिजाकुमार माथुर

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विश्व-रचना के क्रमिक सर्गों से पूर्व की परिव्याप्त प्रकृति अंतराल की कराल कोख में झीने धूम बादल-सी दिखाई देती है। अंतरिक्ष की निश्चल कालिमा ही जैसे कहीं अधिक सघन और कहीं विरल हो गई हो। ऊपर से निस्पंद किंतु अत्यंत सूक्ष्म गति से विकल यह घुमड़न कल्पों से जमती रही है, जमती रहती है। इदस विराट तेज-शून्य में अनन्त शक्ति क्षेत्र, धारा-तरंग, आकर्षण-व्यास, चुंबकीय प्रभाव परिधियाँ, विद्युतावर्त क्रियाशील हैं अर्थात् सृष्टि की निरंत-चेतना इन माध्यमों द्वारा प्रकट होती है। पदार्थ रचना की इस क्रिया-प्रक्रिया को भ्रमराकर गतियाँ उत्पन्न होती हैं और आदि-मृत्तिका के कराल मेघों की गाँठों में से ब्रह्मांड, नक्षत्रपुंज तथा वर्तुल-ग्रहपिंड कुंभों की भाँति बनते चले जाते हैं।
-गोल गोल घूम रहा
चाक अंधकार का
बदल चला व्यक्त में
अदृश्य देशकाल का-

अयुत, अनश्वर तत्त्वों की अनझिप कच्ची मिट्टी
धून सृष्टि की पिसी पिसी
चरमांदोलित
युत होने के लिए पिपासित
अपनी सहज विभक्त अस्मिता से अनुतापित
अपने पूरक
भिन्न तेज की ओर खिंची
उस अनादि सम्मोहन के
विभ्राट अ-क्षण में
वह विद्धांग-अग्नि अपराजित
एक केन्द्र में हुई समाहित
महासृष्टि का बीज बनी
-गोल गोल घूम रहा
चाक अंधकार का
सृष्टि-बीज बना
निराधार देशकाल का-
यह तेज
यह तनिमा
यह परिधि
यह परिक्रमा
यह बिंदु
यह महाव्यास
यह शुक्र-सूक्ष्म
परम सम
रज-लास्य विषम
अनायास
यह विपरीत का आकर्षण
सब अर्धपंगु पूरक बिन
प्रतिकूल का स्वीकारमय आस्वादन
चेतन का यह संचरण
सृष्टि का अन्वितियांे में अतिरंजन
-गोल गोल घूम रहा
चाक अंधकार का
गतियों में बदला
अडोल देशकाल का-
लवों ऋण
बिंदुओं में बिंदुओं में बिंदु है आबद्ध
सृजन की उत्तेजना में लिप्त यह युगनबद्ध
यह स्वयंभव, प्रकृत, पारदविद्यु-
रत्यातुर, विकल कोषांड
प्रथम भोगास्वाद से बाधित
परस्पर विद्ध होने की चरम अनुरक्ति से उद्भ्रांत

धृत पूरकों की खोज में संतुलन-कमी विचरते-
लयहीन यह उपछंद
प्रतिलोम-तापित अव्ययों की संधि में फँस-
पैठने के दंशमय मणिबंध
दो भिन्न तेजस-रुद्र के लयबद्ध होने का-
अघट संघात
वसु-चेतना की ग्रंथि में वह जन्म लेता अग्नियों
-का अप्रमेय प्रवाह
संचरित विद्युत-कंप से अतिहव्य के आवर्त्त-
-क्रम उठने लगे दुर्वार
सारे विषम गतिभाव होकर शृंखलित बनने लगे
-समतोल का आधार

ज्यों स्याह जल की झाँइयोंवाले अँधेरे ताल की
-गहराइयों के अंधकार अपार
बेसूझ बिम्बों के अधूरे रूप में निष्कंपताएँ रुक
-गई हों काल-पंख पसार
सहसा प्रथम वातोर्मि का अंकन अछूता पड़ चले
-सुकुमार गोलाकार
जो जन्म दे अनगिन भँवर प्रति संक्रमों को-
-कुंडलित मथने लगे मझधार
वह अप्रतीकों का अकंपित ध्वांत
यों हो चला अनुक्रांत
घिरने लगे परमाणु के मंद्राभ्र चापाकार
होन लगा ब्रह्मांड-रज को निरालोक प्रसार

-गोल गोल घूम रहा
चाक अंधकार का
लय का संकल्प बना
तंत्र देशकाल का-

जितना ही हटता है पीछे
प्रतीप-तेज तिरोहित असीमा में
उतना ही शेष-तोल उदित हो जाता है
उतना परिणाम आदि-द्रव्य बन जाता है
जैसे खिंचे एक ओर अंतहीन अप्रमाण डोर
झेल वह कसाव
छोर दूजा बढ़ाव आता है
वर्द्धित प्रस्तार फिर समान हो जाता है

यों अशेष सर्जन-क्रम
यों अबाध पुद्गल-क्रम
यों ही अनवरत है
नए नए सूर्यों, नक्षत्र, ब्रह्मांडों का
राशि राशि दिव्य जन्म-

मिटता नहीं है कुछ
फिर से उदित होने को
सिर्फ लीन होता है

जैसे कोई अद्वितीय भूमि-तल
द्रुम, लता, दूब, शस्य
उगी हर वस्तु को
स्याही की तरह सोख ले
और फिर कहीं धीरे क्रम से उभार दे
जैसे पानी पर उठी
पानी की अनाम गाँठ
कुछ देर रहकर
फिर चपटी हो समा जाय
क्षण भर के बाद
अन्य रूप कहीं बन जाय

कुछ भी नहीं है जड़
सब कुछ प्रकाश है
कुछ भी अचेतन नहीं
जीवित सदाधार है
शून्य नहीं है कोई
रूपसत्ता का आधार है
अंधकार कहीं नहीं
आलोक का प्रकार है
मिट्टी भी ज्योति है
वस्तु महासत्य है
महत् ही मनोरथ है
संभावना ही अर्थ है
-गोल गोल घूम रहा
चाक अंधकार का
जन्मों में बदला
अजन्म देशकाल का-

अजन्म की व्यथा ने शून्यों में रेखाएँ खींच दीं
अनन्तों को बाँध दिया रूपों में आकारों में
पीड़ा अनभिव्यक्त की
घुमड़न निरीह, विवश
भाषाहीन मौन की
लक्ष्यहीन भटकन वह
आदिम मनोरथ की
कहीं कुछ होने की
परिणति-रहित लालसा
बंद कली में निमग्न गंध-ऊष्मा सी
असमाप्त वेदना कभी खुल न सकने की
कितनी घुअन है, कचोटन है
सब कुछ जानकर भी
ओंठ कह कुछ न सकते हैं
बेहद तृषा है
पर प्यास की है पहिचान नहीं
यह भी मालूम नहीं
प्यास किसे कहते हैं
कब से है, किसके लिए है
कब बुझेगी यह
सिर्फ एक उद्दीप्त मूर्छना
भरी है हर रोएँ में
हर रोम अंजली है
नन्ही सी कभी कोई बूँद-झरन
जिसमें हो समा जाय
यह मुँह जन्मांतरों का खुला हुआ
पहिली ही तृप्ति में
सदा को बंद हो जाय-

-या
एक उद्दाम रस की घुमेर से
बँधी-बँधी अनबींधी आदिम शकुंतला
जिसका दुष्यंत कभी आया है, न आएगा
हर कोष-कूप भरा प्रियता से देह का
एक धूप धोई युवा मंजरी
बिना धुले रेशम की कोरी अनुगंध सी
रोमबंद देह में बंदिनी
अपनी ही सुगंध से विभोर मुग्ध
आधी बेहोशी में चलती हुई चाँदनी
जिसका एक रोआँ भी हुआ न कभी काँटेदार
किसी भी पुरुष की चुंबक-परछाईं से

यौवन का सारा कसा हुआ ताप
मन से अनायास ही उमगते आनंदो की
ताज़ी ताज़ी ऊष्मा
ऊष्मा में नहाए अंग
इस होड़ा-होड़ी में अंगों में मन उतरा
मन में बेसुध वक्षों से
अंग हैं समा गए-
भान भी नहीं है इन्हें
कब, किसके पहिले स्पर्श की
अजानी प्रतीक्षा से
हल्की थकानों का जादू है छा रहा
मुंदरी जो प्यार की गड़ेगी मीठे दर्द से
उसका आभास है
जो पहिले से आ रहा
अर्पित हो सकने का बिन बूझा सपना ही
देह बना जा रहा-
-या
काले कांतारों की गुथीली गाँठों में
सोते में छोड़ी हुई दमयंती
जिसका
अर्धनिद्रा भरे अवलोकित क्षण में
विगत औ’ भविष्य सब
बनेगा अटूट वर्तमान
दो अप्राप्य बिंदुओं के बीच
परिवर्तनहीन ठगा व्यवधान-

-या
वह अबोध बच्चा
जो खेल खेल में
दीवारों वाली भूलभुलैया में खो गया
घबराहट पार
सिर्फ चलता ही जा रहा
हर एक मोड़ को
बाहर का द्वार समझ

-या
वह अकुंएदार उर्वरा कोख
जो अपने में रक्षित है
ग्रहण करने की अपूर्त अकुलाहट से
समर्पित है
बीज की अनागत प्रतीक्षा में
निरावृत-बोध है
अवर्जित है।

-या
वह हरा-भरा वृंत
फूल लगने की प्रतीक्षा में
सदा से जो सूना है
केवल प्रस्तुत है
उस क्षण को
जो अब तक अनहोना है,

-गोल गोल घूम रहा
चाक अंधकार का
प्रश्नों में बदला
समाधान देशकाल का-

अनायास उठकर समाधि से
यह आदिरचना के भं्रश बादल
लगे घुमड़ने
विराट के क्षिप्र अशांत पहिए
कराल गति से लगे चमकने

असंख्य सूर्यों की ग्रंथियों सी
बनी विवर्तित अराल-धुरियां
प्रलंब-वृत्ता कमल-गर्भ सी
वे भ्रूण-बीजा अग्नि परिधियाँ
ग्लौ-वर्ण ज्वाला भूतष्मि-द्रव्या
पुराण-कोषा, अजस्र, नव्या
असुर-दहन तेज में नाचतीं
स्फटिक-अग्नि की मालिका-आरसी
थिर रिक्तता की निरंजन अमा में
टँके उदित हो
भीष्म सृष्टि के प्रकांत मुखड़े
अनभिव्यक्त की अनादि ईप्सा के
वे वियुत भैरव-कुंभ जलते

मथे हुए अणु, वि-द्रव्य, ओषध
अयस, वज्र, शिल, खनिज, वनस्पति
बने पड़े हैं करंभ-पावक
आकार, काया, रूपांश-छाया
चैतन्य की वह विमा देह-दाया
अभी सभी जीव रस शृंखला
भानु अहि-फेन के गुंजलक-कुंड में हैं

समस्त आकृति-कोष वाली
निशेष स्रोता कृशानु-झीलें
अछोर जिनके प्रमंडलों से
वितीर्ण हैं द्यौतिस-चाप खीलें
निकल गईं घोर अग्नि-नद सी
आकाशगंगाओं की अराएँ-
करोड़ व्योमों के पार जातीं
श्यामांध कोसों

फैले हुए आलोकित कुहर सी
अभंग चलते चमस-स्वप्न सी
चिरंभ के काल-चित्र पंख पर
उड़ती हुई वे नीहारिकाएँ-

नक्षत्र पर नक्षत्र मंडलों के
खिंचने लगे नाभि-बंद घेरे
नए-नए नील दैत्य-सूरज
महाराशि ताराराशियों पर
वितारका, केतु, अनन्त उडु-रज
पदार्थ-भँवरों के अग्नि-मंथन से
जन्म लेता विराट अविरत
विशिष्टता की असम डोरियाँ
असंख्य सूर्यों को हैं पिरोए
बँधी बँधी हैं रुद्राक्ष-मनकों सी
अन्तहीना मुग्धा धराएँ
विपुल भूमियाँ
विपुल पृथ्वियाँ
लिए अलख जन्म की कथाएँ
देख रहीं बिम्ब-विभूति अपनी
हाथ लिए दर्पण-चंद्रमाएँ
अजन्म का जन्म हुआ मनोरम
यह देह धारण का मोह आदिम
विराट का अर्थ यही वि-सर्जन

-गोल गोल घूम रहा
चाक अंधकार का
देहों में बदला
विदेह देशकाल का-