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भारत गाँवों में बसता है / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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भारत गाँवों में बसता है
खेतों में रोता-हँसता है
अस्सी प्रतिशत जनता गाँवों में रहती है
खुली हवा में जीवन के सुख-दुख सहती है

कुदरत मेहरबान तो घर में धान, नहीं तो
सूखे में जलती है, बाढ़ों में बहती है
सोने की चिड़िया पर जब-तब
बाज़ शिकंजा भी कसता है

भारत की प्राचीन सभ्यता है गाँवों में।
दर्शन है मजदूर किसानों के भावों में
लोकगीत रामायण आल्हा चौपालों पर
शांति तपोवन-सी है छप्पर की छाँवों में

नफरत हो सकती कुछ महँगी-
लेकिन प्यार बहुत सस्ता है
ये ज्ञानी हैं किन्तु अशिक्षा के मारे हैं
मन से हैं धनवान, जेब से बेचारे हैं

अभी अधूरा पहुँचा है विज्ञान वहाँ तक।
लोग गाँव के नई रोशनी से हारे हैं
पिछड़ेपन का साँप विषैला
उनको जीवन भर डसता है।