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पुस्तक मेले से / कौशल किशोर

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वह लौटी थी
पुस्तक मेले से

बहुत खुश थी
जैसे भर लाई है सारी दुनिया को
अपने थैले में

ये किताबें नहीं थीं
उसके सपने थे
ऐसी दुनिया के सपने
जहाँ सब हो बराबर
लब हो आजाद

वह आई थी दिल्ली से अपने शहर
और स्टेशन पर ही घेर ली गई
ए टी एस ने कब्जे में कर लिया सारा सामान
उसका थैला
और किताबे भी

वे उलटते पुलटते रहे
तलाशते रहे किताबों में कुछ खतरनाक
शब्दों और अक्षरों में विस्फोटक
बम और पिस्तौल
गोला और बारूद आर डी एक्स...

वह समझाती रही उन्हें लोकतंत्र के मायने
विचारों की आजादी
वह बताती रही उन्हें पुस्तक मेले
और किताबों की दुनिया के बारे में

सब व्यर्थ था उनके लिए
वे लोकतंत्र के रक्षक थे
पर उन्होंने नहीं पढ़ा था
लोकतंत्र का ककहरा
उनकी नजर में वह खतरनाक थी
कोई फिदायन या आतंकवादी

और जप्त कर ली गई किताबें
अश्रुपूरित नेत्रों से वह देखती रही उन्हें
जिन्हें पुस्तक मेले से खरीदा था
जिसके लिए कई जून भूखे रहकर
उसने जुटाए थे पैसे

वह भेज दी गई बड़े घर में
दिन बीते, महीने और साल भी बीत गये
यह अनुभव की आंच थी
जिन विचारों को उसने पढ़ा था किताबों में
अब वे सींझ रहे थे
सपने जिलाए थे उसे

उसके सामने
नग्न होता जा रहा था यह तंत्र
वह हंसती इस भोदू कालिदास पर
वह देखती क्षितिज की ओर
और आसमान में उड़ते परिंदों के साथ
वह चली जाती इस चहारदीवारी के बाहर
विश्वविजय की ओर

उसके विचारों की कोई सीमा नहीं थी
उसके सपने फूलों की खुशबू की तरह आजाद थे।