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कौन पातियाँ लाए / यतींद्रनाथ राही

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यह सावन का मेघ
न जाने अब
क्या-क्या कर जाये!

धरती भीगी
पर्वत भीगे
भीगे शैल-शिखरियाँ
भीगी छतें
टपाटप टपकीं
छप्पर-छान, छपरियाँ
ताल-पौखरे-नदिया उफनी
लहरें मचली हैं
तूफानों के मान मारती
नावें निकली हैं
घिरी घटाएँ घोर
बिजुरिया
तड़पे और डराये!
बूँद नाचती
झरने गाते
पात-पात मंजीरे
झींगुर की झाँझों पर
धरती
धरती पाँव अधीरे
पिहुका पपिहा
कुहकी कोकिल
टिहकी कहीं टिटहरी
कसक उठी यादों की फाँसें
और और ही गहरी
अंग-अंग में
दरद न जाने
कितने फिर अँखुआये

चूनर भीगी
चोली भीगी
तन गीला मन गीला
जाने क्या करने को कहता
मौसम बड़ा हठीला
तुमसे दूर
दूर दुनिया से
क्या सावन
क्या झूले?
ऐसे भी दिन मिले
ज़िन्दगी तुम भूले
हम भूले
भूले यक्ष
मेघड़ा भूले
कौन पातियाँ लाये।
7.8.2017