क्या लिखें
कैसे लिखें हम
और क्या
अब गुनगुनाएँ?
गीत मत माँगो
किसी संवेदना के कंठ से अब
शब्द गूँगे हैं
अधर पर
मौन के ताले जड़े हैं
क्या खिलेंगे कमल
कोई हंस, उतरेगा कहाँ पर
मानसर काई पटा है
वन सिवारों के खड़े हैं
साँस उखड़ी खुशबुओं की
और ये शातिर हवाएँ?
धूल उड़ती है
हुई बंजर धारित्री
बीज पोचे
हल मिले टूटे हुए तो
निवल कन्धे कर्ज़ लादे
रोज़ लुटता और पिटता
सिटपिटाता अन्नदाता
हैं लुटेरे ही लुटेरे
शाह से भी बड़े प्यादे
दास्तानें दर्द की ये
तुम कहो
किसको सुनाएँ।
भोंकना या दुम हिलाना
मंच पर
सब कुछ अपेक्षित
इस बज़ारू सत्य को
हमने कभी आँका नहीं है
क्रोंच की ही पीर को
अब तक घसीटे ला रहे हैं
वोट की रामायणों को
ध्यान से बाँचा नहीं है
अब खड़े हैं
सोचते हैं
इधर जाएँ?
उधर जाएँ??
11.11.2017