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नया जमाना / चित्रभूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध'
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जब से मन ने खो दिया संतोष का अनुपम खजाना
रह गया है काम सबका एक केवल धन कमाना
जो था शांति का पुजारी बन गया मजदूर मानव
फेर ये अटपट समय का आ गया कैसा जमाना?
बढ गया संघर्श जीवन में है नित नई समस्यायें
कठिन-सा अब हो गया अपनों से भी मिलना मिलाना
बिखरते जाते दिनो दिन आपसी सम्बंध सारे
याद तक करता कोई अपनों का रिश्ता पुराना
कुछ तो है मजबूरियाँ कुछ मन की है बेईमानी
देखकर भी सीखते जाने कई ऑखे चुराना
धीरे धीरे मिटती जाती है पुरानी मान्यतायें
अब नहीं है आपसी सुख दुख का सुनना सुनाना
चलते चलते ही हुआ करती कभी कोई मुलाकाते
हलो हलो 'बाय' कहकर ही चला अब निकल जाना
नये युग की हवा में उड गई सब संवेदनाये
देखते ही देखते आ गया यह कैसा जमाना?