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धूप / कमलकांत सक्सेना

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मेरे घर आंगन द्वारे पर
लटकी
जाने क्या सोच रही है धूप?
समझ नहीं पाता हूँ उसकी
मंशा क्या है?
क्यों उलझी-सी है धूप?

या तो मन मुस्कराती है वह
मेरे अलसाने के उपक्रम पर।
या मदमाती है निज रूप रंग की
उज्ज्वलता के सद्भ्रम पर।

कितने ही दिन
मैं
तम से रहा घिरा
निशि भर सोता
दिन दिन भर डरा डरा!

यह तो पहला ही अवसर है
उगते
देख रहा हूँ ज्योतिर्मय स्तूप!
मेरे घर आंगन द्वारे पर
लटकी
जाने क्या सोच रही है धूप?

सपनों में शहनाई अक्सर
सुन लेता था जाने अनजाने
मन मंदिर में मूरत प्यारी
गढ़ लेता था जाने अनजाने
कितनी ही बार
किरण छू लेता था
दुलरा कर उसको
अपना लेता था
आज हुआ कुछ ऐसा उल्टा
तमगे
छांट रहे हैं किरणों के सूप।
मेरे घर आंगन द्वारे पर
लटकी
जाने क्या सोच रही है धूप!

मुझको पहले ही ज्ञात होता
तो रानी, मैं हर पथ पर
बंदनवार सजाता, कलशों में
भरवाता पानी मैं द्वार पर
अनिंद्य सुन्दरी
तुम आईं अचानक, दुविधा में हूँ
कह दूँ कैसे स्वागत?
स्वागत करना मुझे न आता
पलकें
झपक रहे हैं कजरीले कूप!
मेरे घर आंगन द्वारे पर
लटकी
जाने क्या सोच रही है धूप!