भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा सप्तक-08 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:31, 13 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुलसी को बिरवा समझ, पर आँगन में रोप
स्वयं शांत हो जायगा, रोग शोक अरु कोप।।

कहें चिकित्सक नित्य ही, करो नयन का दान।
बिना नयन के किस तरह, हो प्रिय की पहचान।।

तड़प रही है दामिनी, घन का सीना चीर।
कोना कोना ढूढ कर, बरसाती है नीर।।

सहम गयी गंगाजली, चुप हो बैठा शंख।
धरम करम सब उड़ गए, लगा हवन के पंख।।

उमड़ घुमड़ बदरा घिरे, बरस रही जल - धार।
उमगा कण कण भूमि का, मिला गगन का प्यार।।
 
सफर बहुत लंबा हुआ, टूट चली है नाव।
थका हृदय कहने लगा, डालें कहीं पड़ाव।।

नाव फँसी मझधार में, छूट गयी पतवार।
दूर किनारा है अभी, लगा साँवरे पार।।