भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पीले पत्ते (दर्शन) / शिशु पाल सिंह 'शिशु'
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:32, 13 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिशु पाल सिंह 'शिशु' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
डालियों के मचान से उतर, धराशायी होने वाले;
मुद्दतों बाद बहिन-धूल के सगे भाई होने वाले।
व्यर्थ तुम पतझड़ से भय मान पड़ गये पीले बेचारे;
बदलते नहीं नियति के नियम, किसी के डरने के मारे।
यहाँ पर हर दिन की है साँझ, दीप जलता है बुझने को;
वाक्य को मिलता पूर्ण-विराम, पंथिक चलता है रूकने को।
व्योम में ऊँचे उठते मेघ, बरस कर नीचे गिरने को;
चाँदनी मुसकाती है सदा, अमावस्या से घिरने को।
किसी के भी आने के साथ लगा है जाने का बंधन;
पुलक कर खिलने के ही साथ लगा कुम्हलाने का बंधन।
जागरण को सोना ही पड़ा-होश ने बेहोशी पाई;
पुरातन होने पर परिधान—बदलने की नौबत आई.
सर्व-साधारण के मंच से व्यक्तिगत नाता मत जोड़ो;
पुराने हो इस कारण हटो, नये के लिए जगह छोड़ो।