भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कालिमा मिट गयी चाँदनी हो गयी / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:42, 16 जून 2018 का अवतरण
कालिमा मिट गई चाँदनी हो गयी।
दुग्ध स्नाता धवल यामिनी हो गयी।।
शीत का अब सताना तनिक कम हुआ
दोपहर धूप भी गुनगुनी हो गयी।।
खिल उठे फूल चारो तरफ इस तरह
मुग्ध दृश्यावली मधुबनी हो गयी।।
दिख रही है धरा पीत श्रृंगार में
ऋतु स्वयं काम की कामिनी हो गयी।।
श्याम की बाँसुरी बज रही रात में
मान की कोकिला रागिनी हो गयी।।
व्यस्त इतना हुए जिंदगी थम गयी
हर कथा अनकही अनसुनी हो गयी।।
पीर चुभती रही कंटकों सी मगर
घिर नयन में घटा सावनी हो गयी।।