भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चाह / आहत युग / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:24, 18 जुलाई 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेन्द्र भटनागर |संग्रह=आहत युग / महेन्द्र भटनागर }} जी...)
जीवन अबाधित बहे,
जय की कहानी कहे !
आशीष-तरु-छाँह में
जन-जन सतत सुख लहे !
दिन-रात मन-बीन पर
प्रिय गीत गाता रहे !
मधु-स्वप्न देखे सदा,
झूमे हँसे गहगहे !
मायूस कोई न हो,
लगते रहे कहकहे !
हर व्यक्ति कुन्दन बने,
अन्तर-अगन में दहे !
अज्ञात प्रारब्ध का
हर वार हँस कर सहे !