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किन्नर / अंजना वर्मा
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किसी तरह अस्तित्व-रक्षा में लीन
ठिकाना मालूम नहीं है अपना
कभी रेलगाड़ी में
कभी चौराहे पर
तो कभी किसीके द्वार पर
हर जगह दिख जाती हैं
उनकी फैली हथेलियाँ
ओठों पर याचना है
बीत जाएगी इसी तरह उम्र इनकी
दु: ख नहीं है इनके लिए किसीको
न किसीके पास समय है
इनके लिए कुछ सोचनेका
परंतु
इन्हें समाज से बहिष्कृत करने के लिए
समय भी था
और ताकत भी थी
समाज क्रूर बन गया
तो माता-पिता भी पत्थर
जिन्होंने जन्म देकर त्याग दिया
क्या है पहचान इनकी?
सृजनहार की गलती का
और समाज के अन्याय का
फल भोगते हुए वे
भटक रहे हैं कहाँ-कहाँ?
पता खो गई चिट्ठियोंकी तरह
कोई गंतव्य नहीं है इनका
गौर से देखो
वे बिना पते की
फाड़ी गई चिट्ठियाँ हैं
एक अदृश्य डस्ट बिन में