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चाय का मग्गा / अंजना वर्मा

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यह चाय का मग्गा
कितना प्यारा है!
मन करता है चूम लूँँ इसे
 (वह तो करती ही हूँ चाय पीते हुए)
कितना अपना लगता है यह!
कि जब मैं थकती हूँँ
यह चला आता है मेरे पास
मेरी थकान दूर करने
जब भी लिखते-लिखते
थकती हैं उंगलियाँ
चिकमिक करने लगती है नज़र
और आँखें बंद होने लगती हैं
लपककर भागती हूँ किचेन में
बनाती हूँ चाय
और ढाल देती हूँ इस उजले मग्गे में
फिर कुछ क्षणों के लिए
यह मग्गा होता है मेरे साथ
और मैं रहती हूँ इसको लिए हाथ
हाय रे मग्गे!
तेरी जय हो!