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घास / अखिलेश श्रीवास्तव

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पाँवो तले रौदें जाने की आदत यूँ हैं
कि छूटती ही नहीं
किसी फार्म हाऊस के लान में भी उगा दिया जाँऊ
तो मन मचल ही जाता है
मालिक के जूती देख कर!
इस आदत के पार्श्व में एक पूरी यात्रा हैं
पूर्व एशिया से लेकर उत्तर यूरोप तक की
जिसे तय किया है मैने
कुछ चील कौवों के मदद से
मैं चील के चोंच से उतना नहीं डरता
जितना आदम के एक आहट से डरता हूँ

मैंने आजतक
बिना दंराती लिये हुये आदमी नहीं देखा!

शेर भले रहते हो खोंहो में
पर बयाँ, मैना, कबूतर के घर
मैंने बनाये हैं
मैंने ही पाला है उन सबको
जिनके पास रीढ़ नहीं थी
मसलन सांप, बिच्छू और गोजर!
मैंने कभीनहीं चाहा
कि इतना ऊपर उठूं
जितना ऊंचा है चीड़
या जड़े इतनी गहरी जमा लूं
ज्यो जमाता हैं शीशम
धरती को ताप से
जितना मैंने बचाया है
उतना दावा देवदार के जंगल
भी नहीं कर सकते
जिन्होंने छिका रखी हैं
चौथाई दुनिया की जमीन

मैं उन सब का भोजन हूँ
जिनकी गरदन लंबी नहीं हैं!
मैं उग सकता हूँ
साइबेरिया से लेकर अफ्रीका तक
मैं जितनी तेजी
से फैल सकता हूँ
उससे कई गुना तेजी से
काटा और उखाड़ा जा रहा हूँ।

मैं सबसे पहला अंत हूँ
किसी भी शुरुआत का!

मैं कटने पर चीखता तक नहीं
जैसे पीपल, सागौन और
दूसरे चीखते हैं
मेरे पास प्रतिरोध की वह
भाषा नहीं हैं
जिसे आदमी समझता हो
जबकि उसे मालूम हैं कि मुझे बस
सूरज से हाथ मिलाने भर की देर हैं
ऐसा कोई जंगल नहीं
जो मैं राख न कर सकूँ।
मुझे काटा जा रहा है चीन में
मैं मिट रहा हूँ रूस में
रौंदा जा रहा हूँ
यूरोप से लेकर अफ्रीका तक
पर मेरे उगने के
ताकत और डटे रहने की
जिजीविषा का अंदाजा
नहीं है तुमको!

मैं मिलूंगा तुम्हें
चांद पर धब्बा बनकर
और हाँ मंगल का रंग भी लाल हैं!