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जा रहा नाविक अकेला / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
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बह रही है ज़िन्दगी की नाव
सागर की लहर पर
जा रहा नाविक अकेला
ज्वार की बांहें पकड़कर;
दूर है खोया किनारा
आँख लहरों पर थमी है
दांव पर जीवन लगा दे
जो-वही तो आदमी है
वह लहर पथ का बटोही
नाव लेकर जा रहा है
आ रहा तूफ़ान सीना
खोलकर वह गा रहा है
मस्त नैया का खेवैया,
चांदनी का पाल धर-धर
जा रहा नाविक अकेला,
ज्वार की बाँहें पकड़कर!
काल का निस्सीम सागर,
आस की पतवार कोमल
प्यास का आधार केवल
नयन का नमकीन-सा जल
साधना को तृप्ति मिलती है
भंवर में खेलने से
पार जाता है मुसाफ़िर
नित लहर को झेलने से
चेतना का रूप गढती है
लहर अल्हड़ छहरकर
जा रहा नाविक अकेला,
ज्वार की बांहें पकड़कर!