Last modified on 4 अगस्त 2018, at 14:52

तुम नदी की लहर / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:52, 4 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवदेव शर्मा 'पथिक' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम नदी की लहर मत बनो मानिनी
नेह अपना किनारे से टूटे नहीं
प्रीत पनपी सतह से सतह पर रहे
धार बनकर मुझे प्यार लूटे नहीं
बाँह में हीं रहो छाँह में ही रहो
वक्ष की धारियों में जगह कम नहीं
गीत की पूर्णिमा में नहाया करो
आँख में हीं रहो तुम वजह कम नहीं
दूर सागर की लम्बी डगर मत धरो
प्यास गागर उठाये खड़ी घाट पर
अंजुली में तरल तुम बनो अश्रु सी
नीर बनकर न बहना किसी बाट पर
वादियों में न बह देख पलकें खुलीं
सेज कोई नहीं पुतलियों से नरम
स्नेह की पीड़ उछला करे आँख़ में
देखकर हो जिन्हें मछलियों को भरम
तुम न मैना बनो पार की डार की
घोंसला प्राण वन का उजड़ जाएगा
नीड़ में मैं अकेला रहूंगा नहीं
द्वार पर एक मौसम ठहर जायेगा
दूब सूखे नहीं छंद के खेत की
ओस की बून्द-सी मत पराई बनो
साँस के द्वार पर तुम जुही—सी खिलो
धूप-सी मत तपो तुम जुन्हाई बनो
सावनी-सी बरस लो इसी देह पर
रेत की छाँक तुमसे भरेगी नहीं
बीन-सी अंगुली में उलझती रहो
रीत की बाँह तुमसे भरेगी नहीं
कल्पना मत गगन की करो मानिनी
भूमिका-सी रहो पुस्तिका में अमर
बाँसुरी पर बनो तान की राधिका
साधना-सी रहो संचिका में अमर
अर्चना मैं करूँ तुम बनो सर्जना
वर्जना मत बनो, तुम शिखा-सी जलो
चेतना का कपूरी दीया जल उठे
प्राण के तीर्थ में वर्तिका-सी बलो
स्वप्न-सी तुम न छलना बनो संगिनी
तुम न रूठो अगर साँस रूठे नहीं
तुम नदी की लहर मत बनो मानिनी
नेह अपना किनारे से टूटे नहीं