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बिसंसृत / अशोक कुमार

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हम कहीं गिरे हुए नहीं थे
हम तो ऊपर उठ रहे थे

कुछ लोग गाँव से कोई राजधानी आ गये थे
और वह यात्रा उन्हें लोमहर्षक लगी थी

कुछ लोग सीधे देश की राजधानी आ गये थे
और वे जब गाँव पहुँचते तो अरबियन नाईट्स के किस्से सुनाते
बोरा चट्टी लिए स्कूल जाते बच्चे अचरज से सुनते
बंगाल के महानगर से आया वासी जब हावडा ब्रिज के बिना बीच के पायों के खड़े होने की बात बताता
धूल वसना एक किशोर मुँह बाये सुनता और लार पोंछ डालता

यह तो गाँव में कहो घूरे थे उस ज़माने में
जहाँ दालान में जमे लोग लकड़ी डाल आग सेंक लेते
और श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग से किसी न किसी पायदान पर चढ़े बढ़े गाने सुन लेते थे
और बी बी-सी से दिन दुनिया की खबरें जान लेते थे
या फिर ऑल इंडिया रेडिओ से कोई तशरीह समझ लेते थे

उठना जारी था सभी का
कुछ नगर आ गये थे
कुछ महानगर आ गये थे
बचे हुए लोग बचे हुए गाँव को कस्बों में बदल रहे थे
जब मोबाइल के टावर को अपने सरसों के खेत में लगवाने की मारामारी कर रहे थे

बदलते समय में
नज़रों के आगे धुआँ हर जगह था
और महानगरों से स्मॉग की खबरें थीं

लोग टेलीविजन गौर से देखते
टेलीविजन गौर से पढ़ते
एक समान भाषा गढ़ते
एक समान आगे बढ़ रहे थे

समान उठ रहे थे
समान गिर रहे थे।