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किस्सा उस कम्बख्त औरत का / अशोक कुमार पाण्डेय

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सिलसिला शुरू तो खैर दया से ही हुआ था

उस उदास सी सुबह
जब पहली बार झिझकते कदमों से आयी वह
नम आँखे गड़ाये जमीन पर
और सूनी उंगलियों में फंसी
दुख सी नीली कलम खोलते-खोलते
फूट ही पडी आखिरकार
तो जैसे उसका दुख
कोलतार सा पसर गया सबके भीतर
कुछ पल के लिए ढीले हो गये नियमों के बंधन
कुछ पल के लिये ठहर गये कागज़ के टट्टू
कुछ पल के लिये हुई आत्माओं में हरकत
हमारे साथ की कुर्सी पर बैठी वह
सहकर्मी बनने से पहले
कई दिनों तक रही
हमारे दिवंगत सहकर्मी की हतभागी विधवा

सच मानिये
हम तो बदलना भी नहीं चाहते थे
उसकी माँग की सफ़ेदी सी
स्थायी थी हमारी सहानूभूति
ल्ेाकिन जो हुआ उसके बाद
क्या करते आप जो होते हमारी जगह?

अभी महीना भी नहीं बीता था पूरा
कि आँखे खिल गईं
ओस से धुली जाड़े की सुबहों सी
हम चिताभश्म से सिक्के ढ़ूंढ़ने वाले कंगलों की तरह
ढ़ूंढ़ते रहे उनमे अश्रु और आत्मदया की कतरने
पर वहंा धूप से टुकड़े थे आत्मविष्वास के
और उस दिन तो मानो बिज़ली गिरी हमपर
जब किसी चुटकुले पर हंस पड़ी वह ठठाकर
और धुल गया चेहरे से उदासी का आखि़री धब्बा

वैसे गनीमत थी अब भी
और जिंदा था हमारा विष्वास
कि चलो अब हंसी वसी तो कोई कहां तक रोके
पर कम तो नहीं होते
आत्मा के साथ शरीर लिपटे शोक चिह्न
उसकी सूनी कलाईयों और एकरंगी साड़ियों से
पसीज जाते हम भीतर तक
अपनी पत्नियों को चूमते हुए रात के अंधेरों में
बुदबुदाते मन नही मन
‘ ईश्वर इसे मत दिखाना कभी ऐसे दिन’
अक्सर ख़ुद ही भर देते उनकी माँगो में सिन्दूर
पायल और बिछुए बदलवा दिये वक़्त से पहले ही
बस सोच ही रहे थे अगले बोनस से नई कांजीवरम के बारे में
कि उस दिन
दशहरे की छुट्टियों के ठीक बाद

विश्वास ही नहीं हुआ अपनी आँखों पर
...जैसे माँग का सिन्दूर उतर आया हो साड़ी की किनारी पर
और आँसू सज गये हों मध्यमा पर मोती की शक्ल में
चप्पलों पर उग आई थी हील
बाल विजय पताका से लहरा रहे थे कंधो पर
बेतरतीबी कतर दी गई थी भौहों से
और चिबुक के तिल की अनुकृति उभर आई थी उनके बीचोबीच

ठीक उसी पल लगा हमें
कुछ ज़्यादा ही बतियाती है वह
दफ़्तर के इकलौते कुंआरे क्लर्क से
ठीक उसी पल दिखा हमें उसकी आँखों में आमंत्रण
ठीक उसी पल खाली-खाली लगी उसकी मेज़
ठीक उसी पल घड़ी पर गयी हमारी निगाह
मत पूछिये कैसी यंत्रणा थी उस एक पल में
ढह गया हमारी आस्था का अंतिम अवलम्ब
और हम रह गये किंकर्तव्यविमूढ़ - अवसन्न

बोनस के पैसे पड़े रहे बैंको में
और झल्लाये पत्लियों पर यूंही
मन किया
ढ़ूंढ़ निकाले किसी पुराने बक्से में पड़ी उनकी डिग्रियाँ
और चिंदी-चिंदी कर उड़ा दें हवा में
बदल दें हर जगह नामाँकन
और कहें
दिखाओ तो एक बार
कैसे रहोगी जब नहीं रहेंगे हम

मत पूछिये क्या-क्या किया हमने
उसकी सूनी मेज़ पर टिका दिये सारे टट्टू
उसकी क़लम सुनहरा चाबुक हो गयी
जकड़ दिया उसको नियमो की रज्जु से
वह अल्हड़ पुरवा हो गयी
उसके पांवो से बांध दी घड़ी की सुईयाँ
वह पहाड़ी नदी हो गयी
और क्या करते अब इससे ज्यादा!

और वह है कि बदलती ही जा रही है दिन ब दिन
बात-बात पर आने लगी है मुस्कुराहट
लाख कोशिशों के बावज़ूद नहीं रोती अब फूट-फूटकर
बस उदासी की एक बदली आकर चली जाती है
बतिया लेती है अब किसी से भी बेधड़क
भाई साहब नहीं सर कहने लगी है अब
दो पहियों पर भागती है आज़ादी से
मजे से खाती है समोसे कैंण्टीन में
कई बार सुना है गुनगुनाते अकेले में

हद है
चिढ़ सी जाती है कम्बख़्त
शादी के नाम पर ही!