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नौ / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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ढूंढा बहुत जहाँ में अपना मिला न कोई
लगते तो सब हैं अपने
लेकिन हुए पराए
इस नीड़ से उड़े सब
पंछी थे जो-जो आए

बादल को बसाया था
छाया करेगा मुझ पर
सोचा नहीं था उससे
बिजली हनेगी गिरकर

इतना समझ जो लेता
बादल में आग है
इतना समझ जो लेता
पंछी में नाग है
तो दिल में नहीं बसाता, बेकार आँखे रोई
जो-जो मिले थे मुझसे
खुदगर्ज यार थे वे
समझा तो मैं था सच्चा
पर झूठे प्यार थे वे

आँखों में बस के जल्वा
आँखे चुरा लिया है
अब क्या करूँ मैं बोलो,
वो मुँह फिरा लिया है
लाखों मिले जहाँ में, अपना बना न कोई।