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ग्यारह / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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अंजाने से प्रीत बसा क्या तूँ ने किया गुनाह नहीं

कब उड़नेवाले पंछी को
पादप अपना कह देता है
कब गिरने बाली बूंदों को
बादल पाना कह देता है
उड़ने बालों को उड़ने दो
गिरने वालों को गिरने दो
उठने-गिरने का क्रम प्रकृति में जारी है

क्या प्रकृति के मुख से निकली है उफ! आह! कभी?

जो आया है, वह जायेगा
नादान यहाँ रोने बाला
फूटे प्याले को देख कभी
क्या रोया है पीने बाला
चला गया सो चला गया
मत लौट आने की बात करो
मिट्टी के फूटे प्याले तो,
ले हेम चषक पर हाथ धरो,
था आज तुम्हारा सोने का
कौड़ी के बदले दे आया
कौन मूर्ख तुमसा जग में
सुख के बदले दुख ले आया।

कल आनेबाला हीरे का, होगा-होना गुमराह नहीं।