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बारह / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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कितने उम्मीदों के गागर भर-भर का छलक गये है
कितने सपनों के प्याले भर-भर कर लुढ़क गये हैं
फिर क्या कोई उम्मीदों का
संसार बसाना भूला है
फिर क्या कोई सपनों का
मनहर बाग लगाना भूला है

तुम एक नहीं! जग में अनेक तेरे ऐसे साथी होंगे
जो बीते को भूल और हँस-हँस जीवन जीते होंगे

कलाकार वह सफल हुआ
जो है काँटों को फूल बनाता
मानव वही हुआ जग में
जो पत्थर को अनमोल बनाता

उठ चल अब उसको याद न कर!
जल-जल तन को बर्बाद न कर
पूछो तो पादप से जाकर, किस-किसने उसको लूटा है
हर साल बसी दुनिया उजड़ी, यह सच्चा है या झूठा है

पर वह अपनी उजड़ी दुनिया को
देख कभी क्या रोता है
बीती घटना को चुन-चुन कर
यादों में कभी पिरोता है

कहता हूँ पगले! रो रो कर
अपना आँसू बेकार न कर
देखो तो भौरा को कितना इंदीवर प्यारा होता
पर सूखे इंदीवर पर क्या मधुकर तुझ-सा रोता है

फिर ताजे नए खिले फूलों
की ओर मधुप उड़ जाता है
रस चूस-चूस इठलाता है
तुझसा न कभी पछताता है

कहता हूँ मीत बनो मधुकर
रोओ मत आहें भर-भर कर
क्या लाया था? जो चला गया, क्या साथ लिए तुम जाओगे
पगली दुनिया है।, अय पगले! पागल बन, तभी तो पाओगे