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अठारह / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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मैं अधूरा रह गया तो क्या हुआ
जग अधूरा रह गया है

हाय! सोचा था कभी कि सुबह को सूरज छिपेगा
और नभ में तिमिर का साम्राज्य होगा
जो न सोचा था कभी वह हो रहा है
जो न सोचूंगा अभी वह कल्ह होगा

तन अधूरा मन अधूरा और
यह जीवन अधूरा रह गया है

झाँक मत दिल में, है दिल का आईना टूटा
बड़ा बीभत्स लगता है, तुम्हारा चेहरा रूठा
गाल कट कर उड़ गए है, नाक के दो भाग
आँख कितनी हो गई है, कौन सच्चा कौन झूठा

मैं अधूरा रह गया तो क्या हुआ
चाँद भी नभ में अधूरा रह गया है

देख होने को अधूरा टूट कर तारे धरा पर गिर उठे
आज होने का अधूरा देखले बादल गगन में फिर रहे
चक्र परिवर्तन का हर क्षण चल रहा है
विश्व पूरे नए साँचे में हमेशा ढल रहा है

देख अपने में उतरकर तुम अधूरा है नहीं
इस अधूरे जगत का कण-कण अधूरा रह गया है