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तेल पेडोनी / बैगा

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बैगा लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

तरी नानी तरी नानी तरी तरी नानी,
नानर नानी, नानर नानी, तरी नानर नाना रे नान।
दादर ऊपर दादर ऊपर घानी चालत है रे।
अर पेड़ों तेलया राई सरसोक तेल, दैया मोरे
पेड़त-पेड़त-पेड़त-पेड़त। 2
कनिहा लरख गय। 2
टूटी गये घानी के रे खां, दैया मोरे
घानी के टूटे-टूटे जूड़यों जाही रे
घानी के टूटे-टूटे जूड़यों जाही रे

शब्दार्थ –दादर=पठार, ऊँचे स्थान पर, घानी=तेल फेरने का यंत्र, तेलिया=टेली, कनिहा=कमर, लरख= कुसका, खाम=खम्ब।

तेल पेडोनी एक रस्म भी है और एक हँसी-मज़ाक का अवसर भी है, पठार पर तेल घानी चलती है। तेल पेरने वाले तेली से कहा जा रहा है – अरे भाई! तू जल्दी से राई- सरसों, जगनी तितली का तेल पेर दो। तेली कहता है- तेल फेरते मेरी कमर में कुसका लग गया है, कमर अकड़ गई है। दूसरा घानी का खम्बा भी टूट गया है। अब तेल पेरना मुश्किल है।

अरे भाई! तेरी टूटी घानी ठीक हो जाएगी। तेरी कमर भी ठीक हो जाएगी। तू जल्दी तेल निकाल दे। हमें देर हो रही है। तब तेली कहता है- टूटी घानी तेल पेरूँगा तो सारा तेल जमीन में गिर जाएगा। तुम्हारे हाथ में कुछ भी नहीं लगेगा। यह गीत चलता रहता है और इसी समय हँसी-मज़ाक के लिए दोसी, टेड़ा और सुआसा एक स्वांग तमाशा करते हैं। छर घास की बनी झाड़ू को उठाकर दो आदमी दोनों तरफ से कसकर पकड़ते हैं। एक तरफ दोसी दूसरी तरफ सुआसा। उस पकड़कर ऐंठते है, खींचा-खाची करते है, जैसे तेल निकाल रहे हों। ऊपर से एक आदमी पानी डालता है। तब ऐंठने वाले कहते हैं- देखो! तेली तो तेल नहीं निकाल रहा है। हम जमकर तेल पे रहे हैं। इतना कहते ही सारे उपस्थित बैगा बच्चे बूढ़े और महिलाएं हँस-हँसकर लोट-पोट हो जाते हैं।