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गंगा / 9 / संजय तिवारी

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त्रिपाद विभूति की बिरजा से
बहुत बड़ी हो
जगत में साक्षात् खड़ी हो
आहत
फिर भी प्रवाहित
कितनी देह
कितनी नेह
कितनी भावनाये
कितनी सम्भावनाये
कितने विचार
कितने संस्कार
कितनी आहे
कितनी चाहे
कितनी विभूतियाँ
कितनी अनुभूतियाँ
इस प्रवाह में अविरल हो गए
सघन थे विरल हो गए
जब जब जिसने कुछ कहा है
सब तुम्ही में बहा है
तुम्हारा आकार
उद्भव का आधार
तांडव की बिखरी जटाओ में
हर युग में
घनघोर घटाओ में
वास्तविक छटाओं में
मूल में
लताओं में
क्या बचा है
तुमसे इतर
सब तो समा चुका
तुम्हारे भीतर
तुम्हें
कौन
कैसे
भला गा सकता है
माँ
तुमसे अलग
यह जीव
कैसे जा सकता है?