सूरज भी भागता है
सुबह से लेकर शाम तक
एक कोने से दूसरे कोने तक
कभी रेंगता सा
कभी सरपट दौड़ता...
कभी कभी शाम को
उलझ जाता है
क्षितिज पर उगी झाड़ियों में,
हो जाता है लहूलुहान सा
मैं पकड़ लेना चाहती हूँ उसका दामन...
और वो रूठे बच्चे सा
हाथों से फिसल जाता है
मैं पूछती हूँ उससे
क्यों भागते फिरते हो
आओ रुको बैठो मेरे पास,
सुनो मेरे मन की,
कहो अपनी थकन
मुझसे कहता है यह सफर ही जीवन है
मुझे चलने दो, रोको मत...
मुझे उदास देखकर मुस्कुराता है
हाथ हिलाकर हौले से कहता है
टाटा!!!
कल फिर तो आऊंगा।