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कहा मोम ने ये पिघलते पिघलते / अजय अज्ञात
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कहा मोम ने ये पिघलते-पिघलते
रफ़ीक़़ेसफ़र हैं अदलते-बदलते
बहुत देर कर दी दयारेफ़लक में
सुनहरी प्रभा ने निकलते-निकलते
पहुंच ही गए हैं निकट मंज़िलों के
क़दम रफ़्तारफ़्ता‚ संभलते-संभलते
नहीं क्यों है थकती शबोरोज़ आख़िर
जबां आप की विष उगलते-उगलते
चले आइएगा कभी बाग़े-दिल में
किसी रोज़ यूं ही टहलते-टहलते
‘अजय' इन पुरानी बुरी आदतों को
समय तो लगेगा बदलते-बदलते