भूख एक बेबाक बयान है / रवि कुमार
भूख के बारे में शब्दों की जुगाली
साफ़बयानी नहीं हो सकती
भूख पर नहीं लिखी जा सकती
कोई शिष्ट कविता
भूख जो कि कविता नहीं कर सकती
उल्टी पडी डेगचियों
या ठण्डे़ चूल्हों की राख में कहीं
पैदा होती है शायद
फिर खाली डिब्बों को टटोलती हुई
दबे पांव/ पेट में उतर जाती है
भूख के बारे में कुछ खा़स नहीं कहा जा सकता
वह न्यूयार्क की
गगनचुंबी ईमारतों से भी ऊंची हो सकती है
विश्व बैंक के कर्ज़दारों की
फहरिस्त से भी लंबी
और पीठ से चिपके पेट से भी
गहरी हो सकती है
वह अमरीकी बाज़ की मानिंद
निरंकुश और क्रूर भी हो सकती है
और सोमालिया की मानिंद
निरीह और बेबस भी
निश्चित ही
भूख के बारे में कुछ ठोस नहीं कहा जा सकता
पर यह आसानी से जाना जा सकता है
कि पेट की भूख
रोटी की महक से ज़ियादा विस्तार नहीं रखती
और यह भी कि
दुनिया का अस्सी फीसदी
फिर भी इससे बेज़ार है
भूख एक बेबाक बयान है
अंधेरे और गंदे हिस्सों की धंसी आंखों का
मानवाधिकारों का
दम भरने वालों के खिलाफ़
दुनिया के बीस फीसदी को
यह आतिशी बयान
कभी भी कटघरे में खड़ा कर सकता है