भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समन्दर कभी ख़ामोश नहीं होता / रवि कुमार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:44, 1 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवि कुमार |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समन्दर
कभी ख़ामोश नहीं हुआ करता
उस वक़्त भी नहीं
जबकि सतह पर
वह बेहलचल नज़र आ रहा हो
लाल क्षितिज पर सुसज्जित आफ़ताब को
अपने प्रतिबिंब के
समानान्तर दिखाता हुआ
बनाता हुआ
स्याह गहराते बादलों का अक़्स
उस वक़्त भी सतह के नीचे
गहराइयों में
जहां कि आसमान
तन्हाई में डूबा हुआ लगता है
एक दुनिया ज़िन्दा होती है
अपनी उसी फ़ितरत के साथ
जिससे बावस्ता हैं हम
कई तूफान
करवटें बदल रहे होते हैं वहां
कई ज्वालामुखी
मुहाने टटोल रहे होते हैं वहां
ज़िंदगी और मौत के
ख़ौफ़नाक खेल
यूं ही चल रहे होते हैं वहां
उस वक़्त भी
जबकि समन्दर
बेहद ख़ामोश नज़र आ रहा होता है