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समन्दर कभी ख़ामोश नहीं होता / रवि कुमार

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समन्दर
कभी ख़ामोश नहीं हुआ करता
उस वक़्त भी नहीं
जबकि सतह पर
वह बेहलचल नज़र आ रहा हो
लाल क्षितिज पर सुसज्जित आफ़ताब को
अपने प्रतिबिंब के
समानान्तर दिखाता हुआ
बनाता हुआ
स्याह गहराते बादलों का अक़्स
उस वक़्त भी सतह के नीचे
गहराइयों में
जहां कि आसमान
तन्हाई में डूबा हुआ लगता है
एक दुनिया ज़िन्दा होती है
अपनी उसी फ़ितरत के साथ
जिससे बावस्ता हैं हम
कई तूफान
करवटें बदल रहे होते हैं वहां
कई ज्वालामुखी
मुहाने टटोल रहे होते हैं वहां
ज़िंदगी और मौत के
ख़ौफ़नाक खेल
यूं ही चल रहे होते हैं वहां
उस वक़्त भी
जबकि समन्दर
बेहद ख़ामोश नज़र आ रहा होता है