भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आखिरी बुज़ुर्ग / कविता भट्ट

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:52, 10 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कविता भट्ट |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> '''17-ह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

17-हे प्रिय!

हे प्रिय! मेरा यह जीवन
जेठ माह की पहाड़ी पगडण्डी-सा
जला दिया गया एक-एक वृक्ष
पोखर सूखे , धारे सूखे
मर गयी जिजीविषा
दूर-दूर तक पंथी न पंछी
तुम मेरे संग चलना तो दूर
मुझे निहारना भी नहीं चाहते ।

18-आखिरी बुज़ुर्ग

आज हो रहा गाँव की
नवनिर्मित रोड का उद्घाटन
वहाँ अकेले रह रहा आखिरी बुजुर्ग
गाँव छोड़ रहा है
अनमना होकर
किन्तु समाप्त नहीं होता
हरे- भरे वृक्ष-खेतों का मोह
मटके का पानी,
मिट्टी की सौंधी महक
ठण्डी हवाएँ, फूलों की महक
नहीं है खुश ,गहरे दुःख में है
फिर भी जा रहा है दूर शहर
बहू-बेटे के साथ की खातिर ।
-0-
19-स्पर्श

विरहन के विरह-सा
दूषित-व्यथित पर्यावरण
चाहता है स्पर्श-
प्रेमी के समान
प्रेम में शर्त नहीं होती
यह तो देता है- जीवन
जैसे वृक्ष देते छाँव-हवा
नदी गाती है प्रवाह के सुर में
प्यास बुझाने वाले गीत
बिन किसी अनुबंध ही ।
-०-