आखिरी बुज़ुर्ग / कविता भट्ट
17-हे प्रिय!
हे प्रिय! मेरा यह जीवन
जेठ माह की पहाड़ी पगडण्डी-सा
जला दिया गया एक-एक वृक्ष
पोखर सूखे , धारे सूखे
मर गयी जिजीविषा
दूर-दूर तक पंथी न पंछी
तुम मेरे संग चलना तो दूर
मुझे निहारना भी नहीं चाहते ।
18-आखिरी बुज़ुर्ग
आज हो रहा गाँव की
नवनिर्मित रोड का उद्घाटन
वहाँ अकेले रह रहा आखिरी बुजुर्ग
गाँव छोड़ रहा है
अनमना होकर
किन्तु समाप्त नहीं होता
हरे- भरे वृक्ष-खेतों का मोह
मटके का पानी,
मिट्टी की सौंधी महक
ठण्डी हवाएँ, फूलों की महक
नहीं है खुश ,गहरे दुःख में है
फिर भी जा रहा है दूर शहर
बहू-बेटे के साथ की खातिर ।
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19-स्पर्श
विरहन के विरह-सा
दूषित-व्यथित पर्यावरण
चाहता है स्पर्श-
प्रेमी के समान
प्रेम में शर्त नहीं होती
यह तो देता है- जीवन
जैसे वृक्ष देते छाँव-हवा
नदी गाती है प्रवाह के सुर में
प्यास बुझाने वाले गीत
बिन किसी अनुबंध ही ।
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20-क़ैद की गई नदी
ओ स्ट्रीट लाइट!
अपनी रोशनी पर-
इतना मत अकड़;
क्योंकि , मैं उस नदी के गाँव से हूँ;
जो तुझे रोशन करने की खातिर-
क़ैद कर दी गई-
सीमेंट की दीवारों में
और उसने उफ्फ तक नहीं की।