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नदी / नंदा पाण्डेय

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बड़ी सहजता से
एक अटूट विश्वास
के साथ
सारे बंधन को उतार कर
सौंप कर अपना
सब कुछ...

अपनी नियति
अपना द्वंद
अपनी आशा
अपनी निराशा
अपनी व्यथा
अपना मान
अपना अभिमान
अपना भविष्य और अपना वर्तमान

भागते हुए
आ लिपटती थी
जैसे वर्षों के बिछड़े
अपनी सुध-बुध भूल
एक दूसरे में समा जाने को
हो गए हों आतुर
उनके इस आंतरिक और हार्दिक
मिलन पर तो जैसे
प्रकृति भी मुग्ध
हो जाती थी
उसके सुगंध से
मिलता था उसको
एक पार्थिव आनंद
होता था अहसास
खुद के जिंदा होने का

कहीं दूर बह जाने से
कुछ नया जरूर मिलता
पर जीवन का अर्थ और
भीतरी तलाश की तुष्टि
जहां निर्वाक होकर
जीना चाहती थी
अपनी उदासी के
 हर क्षण को
शायद यह किनारा ही था...

वैसे मिट्टी की खुशबू आज भी पसंद है उसको!