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आदतन यूँ सोचता है हर कोई / दरवेश भारती
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आदतन यूँ सोचता है हर कोई
उसके साये से नहीं बेह्तर कोई
हैं वो हैरां देखकर ये संगे-मील
जो समझते थे इसे पत्थर कोई
हम भी पा जाते ख़ुदाई मर्तबा
काश ! मिल जाता हमें आज़र कोई
ये है प्यासा,इसमें है सहरा की प्यास
चाहिए इसके लिए सागर कोई
एक मुहताजे-नज़र के वास्ते
सिफ्र से ज़्यादा नहीं मंज़र कोई
जिस्म तो क्या रूह की ज़ीनत बने
है कहाँ किरदार-सा ज़ेवर कोई
राहे-हक़ पर जो नहीं 'दरवेश' आज
लायेगी इसपर उसे ठोकर कोई