आज फिर
आओ!
चलें हम
गीत कुछ गाएँ!
अधर सूखे पाटलों के
तितलियों के पंख
रेत पर
झुलसे पड़े हैं
सीप, घोंघे, शंख
पत्थरों ने
पी लिये
सम्वेदना के स्रोत
इस तमस में
है कहाँ अब
एक भी खद्योत
ज्योति की
कोई किरन तो
एक लाएँ!
उँगलियों से लिखे भेजे
व्हाट्स एपी प्यार
खोखली शब्दावली
तलहीन सी
निस्सार
शिल्प की भोंडी क़बायद
नव्यता के नाम
हैं नए झण्डे
नये पण्डे
नये गुरु-धाम
मुक्त है घोड़े कहीं
तो
मुक्त वल्गाएँ।
किन्तु
प्राणों में घुले उतरे
सरस निर्झर
भर रहे जो
चेतना में
लोकलय के स्वर
और वे कुछ बेटियाँ
पावन ऋचाओं की।
भर रहीं हैं गोदियाँ
तरसी दिशाओं की
हम
बुहारे आँगनों में
फिर उन्हें लाएँ!