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मन के भोर / रामकृष्ण
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तोर चुप्पी अनोर हो गेलो
रात करिआ से गोर हो गेलो
का हूँ, मन के भरम पाल-पोस के अप्पन
एगो लत्तर इयाद के सरेख कइली हल।
साज के, सुरके न, कनहूँ से राग के असरा,
तोरे आँगछ से अन्हरिओ इंजोर हो गेलो॥
ओठ से बात जब छलक जैतो तब कहिह,
गीत हिरदा में जब धमक जैतो फूल निअन
गन्ह के छाँह से सिरजल सिनेह के छँहरी
जेठ के लूक-पहर जुड़-झकोर हो गेलो॥
गुदगुदी मन के भरम खोल सबके कह देतो,
तोर मातल मुठान से अइसन लग रहलो।
अब, बहाना बना के मत जिआन बेर करऽ।
तोर अँचरा में हमर मन के भोर हो गेलो॥