भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोंचे के सबाल / रामकृष्ण

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:58, 3 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=संझा-व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आझ फिन
पछिआरी करेसे
उठलो हे धुआँ -
लाल, पीअर, करिआ
लगऽ हौ
ऊ चकवा, जेकरा-रोज
बइठके पूरुब मुहे
सेंकँ हल कुम्हार
सच्चो के जरित हे,
लाल, सेनुरिआ आउ करिखाही रंग
टपकित हे - गाँव के सिमाना पर।
गाँव के मुखिआजी
ढोबित हथ
थरमस में, पानी
सात समुन्नर पार के।

उन्हकर कहना हे -
उपास के दिन
देल जाहे दान/खोटा-पिपरी के,
चिन्नी-गुड़।
काहे कि-बादर अगुआएत
बरसत फिन पानी,
मुदा, अखनी का होएत
सोंचे के सबाल हे।