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सुतल-जगल के बात / सतीश मिश्रा

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रात-रात भर हमर पलक पर करवट फेरित रात रहल हे।

सपना हल कि लिपल खेत में धान के बोझा कउराइत हे
जागल मन के खरिहानी में केतन असरा बउराइत हे
मेह गाड़ के, बैल जुआ के सपना में चढ़ गेल दवाँही
जगला पर तो हुमचित, धंगचित, नोचित हे अप्पन परछाँही
सुतला में हल चान-चाननी, जगला पर बरसात घिरल हे,
आँधी-झंझावात भरल हे।
रात-रात भर हमर पलक पर करवट फेरित रात रहल हे।

सपना में सरसो पिअरायल, हरियर रुहचुह भेल खेसारी
जगला पर हे मरन-पीर से तड़पित-बिलखित खेत-बधारी
जूही-बेली परिछे बदले होइत हे काँटा के गौना
गुलगुल पोरा कहाँ मवस्सर, जरल कूस बन गेल बिछौना
केतना बात फरक के बोलूँ, सुतल-जगल के बात दिगर हे,
अन्तर के बरिआत सजल हे।
रात-रात भर हमर पलक पर करवट फेरित रात रहल हे।

फूट गेल सब तलफल बोरसी, बइठल ही अब पूस-रीत में
टभकित अप्पन पोर-पोर के टघरावित ही मीत! गीत में
केला अइसन मन के कोपल पसरे ला छटपट कैले हे
सागर में उतरित सूरुज के आसमान अबतक धैले हे
गांठे-गांठ गिरह पर जिनगी, जिनगी गांठे-गांठ भरल हे,
सांसी तइओ साथ रहल हे।
रात-रात भर हमर पलक पर करवट फेरित रात रहल हे।