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आत्मिक मित्र / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र

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वर्षों बाद आज जब
फ़ोन की घंटी के साथ उसका नाम देखा
'आत्मिक मित्र',
जो शायद आज तक इसीलिए सेव रह गया
की शायद कभी उसे भी मेरी फ़िक्र हो
यही तो वह नाम था जिसे
हम एक दूसरे को बुलाया करते थे
सुखद आश्चर्य की अनुभूति में मैं
मानों देखने और सुनने में स्वयं को असमर्थ पा रहा था
स्मृतियों के आँगन में उतरता जा रहा था

कभी घंटों बाते करके भी, जी नहीं भरा करता था
कितने सारे वादे आज भी दस्तक दिया करते हैं
याद है उसकी आँखों में तैरते रंग-बिरंगे सपनों को
अपलक निहारना
सहसा उसकी चिर-परिचित हँसी की खनक से जैसे जाग गया
स्वयम् को नियंत्रित करते हुए शिष्टाचार वार्ता की
उसने भी मेरे परिवार के हर सदस्य का हाल लिया

इतने दिनों के बाद जब सबकुछ बदल गया है
उसका 'आत्मिक मित्र' का संबोधन
ह्रदय की धराभूमि को सींच गया
नम आँखे और रुंधे गले से
बड़ी हिम्मत कर उससे मैंने कहा-
"क्या अब भी तुम्हे कुछ याद है जिसे मैं नहीं भूला"
बड़ी सहजता से उसने कहा-
"मेरे आत्मिक मित्र! आज भी कुछ नहीं बदला है
मुझे गर्व है अपने स्वार्थ रहित प्रेम पर
अब भी लिए फिरती हूँ तुम्हे अंतस की गहराइयों में
सहेज कर रखा है मधुर स्मृतियों को
तुम्हारे पत्र, संस्मरण, लेख और कहानियां
अक्सर लोगों को सुनाती हूँ
पर अब शायद
वे लोग नहीं रहे जो इनके मर्म को समझ सकें"
कितने आसानी से उसने सबकुछ कह दिया था
और मैं निःशब्द, अवाक सम्मोहित सा
मनमोहक सामगान की तरह सुनता रहा था
सोचा कितना मुश्किल होता है
नारी के मन को समझ पाना

जिज्ञाषा कुछ और तीव्र हो चली थी
मैं कह बैठा "अब क्या सोचती हो मेरे लिए?"
उत्तर में उसने बस इतना ही कहा
"तुम सब जानते हो, अपना ख्याल रखना "
और फिर फोन रख दिया था
मैं कुछ देर तक चुपचाप भावना में डूबता रहा
कुछ समझ न सका

शायद यही है "आत्मिक मित्र" की परिणति
जो दैहिक संबंधो के पार
आत्मा के एकीकरण तक
चलता रहेगा निरंतर
उतनी ही उर्जा और आकर्षण के साथ